मुंबई : वायु प्रदूषण और ग्रीनहाउस गैसों के स्तर को मापने के लिए अब सैटेलाइट का इस्तेमाल किया जाएगा
Mumbai: Satellites will now be used to measure air pollution and greenhouse gas levels.
देश के प्रमुख महानगरों मुंबई और दिल्ली में वायु प्रदूषण और ग्रीनहाउस गैसों (मीथेन और कार्बन डाईऑक्साइड) के स्तर को मापने के लिए अब सैटेलाइट का इस्तेमाल किया जाएगा। आईआईटी बॉम्बे के शोधकर्ताओं ने सैटेलाइट से प्राप्त डाटा का उपयोग कर इन शहरों में कार्बन डाइऑक्साइड और मीथेन जैसी गैसों की मात्रा को सटीकता से मापने का तरीका खोज निकाला है।
मुंबई : देश के प्रमुख महानगरों मुंबई और दिल्ली में वायु प्रदूषण और ग्रीनहाउस गैसों (मीथेन और कार्बन डाईऑक्साइड) के स्तर को मापने के लिए अब सैटेलाइट का इस्तेमाल किया जाएगा। आईआईटी बॉम्बे के शोधकर्ताओं ने सैटेलाइट से प्राप्त डाटा का उपयोग कर इन शहरों में कार्बन डाइऑक्साइड और मीथेन जैसी गैसों की मात्रा को सटीकता से मापने का तरीका खोज निकाला है।
भारत में फिलहाल ग्रीनहाउस गैसों की निगरानी के लिए जमीन आधारित स्टेशनों का बड़ा नेटवर्क नहीं है। इसी कमी को देखते हुए आईआईटी बॉम्बे के प्रोफेसर मनोरंजन साहू और आदर्श अलगडे ने अंतरिक्ष से मिलने वाले डाटा पर भरोसा किया। सैटेलाइट डाटा के विश्लेषण से उन्होंने पाया कि पिछले कुछ वर्षों में दिल्ली और मुंबई में ग्रीनहाउस गैसों का स्तर लगातार बढ़ रहा है। इसके साथ ही मौसम और शहर के अलग-अलग हिस्सों के आधार पर इसमें अंतर भी देखने को मिला। इस विश्लेषण से शोधकर्ताओं को “मीथेन हॉटस्पॉट्स” यानी उच्च मीथेन उत्सर्जन वाले इलाकों की पहचान करने में मदद मिली। ये स्थान आम तौर पर कचरा भराव क्षेत्र (लैंडफिल), अपशिष्ट जल (वेस्टवॉटर) प्रबंधन केंद्रों या अधिक औद्योगिक गतिविधियों वाले क्षेत्रों के आसपास पाए गए।
प्रो. साहू के अनुसार, सैटेलाइट मॉनिटरिंग से सरकार और नीति-निर्माताओं को यह समझने में मदद मिलेगी कि प्रदूषण के सबसे बड़े स्रोत कहां हैं। इससे वे ट्रैफिक नियंत्रण, लैंडफिल गैस प्रबंधन और औद्योगिक उत्सर्जन पर निगरानी जैसी नीतियों को प्राथमिकता दे सकेंगे। साथ ही समय के साथ इन नीतियों के प्रभाव का भी मूल्यांकन कर पाएंगे।
नासा और ईएसए के सैटेलाइट डाटा का उपयोग
शोधकर्ताओं ने मुख्य रूप से नासा के ऑर्बिटिंग कार्बन ऑब्जर्वेटरी-2 से प्राप्त कार्बन डाइऑक्साइड डाटा और यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी के सेंटिनल-5पी सैटेलाइट से मिले मीथेन डाटा का उपयोग किया। चूंकि ये सैटेलाइट सीधे उत्सर्जन की मात्रा नहीं बताते, इसलिए आवश्यक मान निकालने के लिए शोधकर्ताओं ने विशेष एल्गोरिदम का सहारा लिया। डाटा की विश्वसनीयता सुनिश्चित करने के लिए इसे टीसीसीओएन नामक वैश्विक जमीनी मापन नेटवर्क के साथ मिलाकर सत्यापित किया गया।
सैटेलाइट और जमीनी स्टेशन का संयुक्त उपयोग होगा सबसे प्रभावी
टीम ने पुराने डाटा के आधार पर भविष्य के रुझान अनुमानित करने के लिए सारिमा जैसे सांख्यिकीय मॉडल को दिल्ली और मुंबई के लिए अनुकूलित किया। हालांकि, प्रो. साहू का कहना है कि सैटेलाइट तकनीक की अपनी सीमाएं हैं, बादल, धूल और शहरी धुंध (स्मॉग) जैसे तत्व कभी-कभी माप को प्रभावित कर सकते हैं। इसके अलावा सैटेलाइट लगातार निगरानी करने के बजाय केवल एक-एक स्नैपशॉट प्रदान करते हैं। इसलिए उनका मानना है कि सबसे बेहतर समाधान सैटेलाइट और जमीनी स्टेशनों का संयुक्त उपयोग है। इससे उत्सर्जन संबंधी अनुमानों की सटीकता बढ़ेगी और जलवायु नीति-निर्माण में ठोस आधार मिलेगा। भविष्य में मशीन लर्निंग और भौतिकी-आधारित मॉडल का संयोजन इस प्रक्रिया को और अधिक उन्नत बना सकता है।

