पालघर में १५ से २० की दवा मिल रहीं रु.२०० में, जेनरिक दवाओं के नाम पर नागरिकों से लूट!

15 to 20 medicines are available in Palghar for Rs.200, citizens looted in the name of generic medicines!

पालघर में  १५ से २० की दवा मिल रहीं रु.२०० में, जेनरिक दवाओं के नाम पर नागरिकों से लूट!

जेनरिक दवाएं गरीबों को राहत देने की बजाय मेडिकल स्टोर संचालकों की जेब भर रही हैं। जेनरिक और एथिकल दवाओं को अलग-अलग पहचान पाना आम जनता के बस में नहीं है। ये बात सिर्फ मेडिकल स्टोर्स संचालक और अस्पताल वाले ही समझ सकते हैं।

पालघर : जेनरिक दवाएं गरीबों को राहत देने की बजाय मेडिकल स्टोर संचालकों की जेब भर रही हैं। जेनरिक और एथिकल दवाओं को अलग-अलग पहचान पाना आम जनता के बस में नहीं है। ये बात सिर्फ मेडिकल स्टोर्स संचालक और अस्पताल वाले ही समझ सकते हैं।

डॉक्टरों को सख्त निर्देश के बावजूद वे जेनरिक दवाई लिखने में आनाकानी कर रहे हैं, क्योंकि जेनरिक दवाओं में उनका मुनाफा कम होता है और ब्रांडेड दवाओं में ज्यादा। इन ब्रांडेड दवाओं के नाम पर मेडिकल स्टोर्स वाले नागरिकों को लूट रहे हैं और स्वास्थ्य विभाग सुस्त पड़ गया है।

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उदाहरण के तौर पर एक ब्रांडेड दवाई की कीमत अगर २०० रुपए की है तो यही दवाई जेनरिक मेडिकल स्टोर्स में १५ से २० रुपए की मिलेगी। यह भी देखा जा रहा है कि जेनरिक दवाओं को अन्य मेडिकल स्टोर्स वाले ब्रांडेड बताकर ग्राहकों को २० से २५ प्रतिशत छूट देते हैं, जिससे ग्राहक खुशी-खुशी दवा लेता है। इसके बावजूद दवा विक्रेताओं को ८० प्रतिशत की कमाई होती है, जिससे ग्राहक अनजान होते हैं।

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जेनरिक दवाओं के प्रयोग पर सरकार विशेष जोर दे रही है। जेनरिक को ब्रांडेड दवाओं के नाम पर मरीजों तक पहुंचाया जा रहा है। इन दवाओं की कीमत में औसतन १०० से १५० फीसद का मुनाफा रहता है। जैसे एक दवा का जेनरिक एमआरपी ४२ रुपए जो होलसेल में मात्र १८ रुपए की मिलती है। इसी कंपनी की ब्रांडेड दवा का एमआरपी ३९ रुपए दर्ज था इसीलिए यह मुनाफे का सौदा बनी हुई हैं।

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जेनरिक व ब्रांडेड दवाओं में सिर्फ नाम का अंतर होता है। आम आदमी को लाभ देने के लिए सरकार के निर्देश पर कंपनियों द्वारा यह दवाएं बाजार में उतारी गई हैं। चिकित्सकों को भी जेनरिक दवाएं लिखने के निर्देश दिए गए हैं। इसके बाद भी इसका दुरुपयोग हो रहा है। ब्रांडेड दवाएं बताकर मेडिकल स्टोर संचालक मोटा मुनाफा कमा रहे हैं। 

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जेनरिक और ब्रांडेड दवाओं का सबसे ज्यादा खेल ग्रामीण क्षेत्रों में खेला जा रहा है। यहां के लोग शहरों के मुकाबले कम पढ़े-लिखे होते हैं और उन्हें दवाइयों के बारे में भी उतनी जानकारियां नहीं होती हैं।